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असंतुलित विकास (Unbalanced Growth) – असंतुलित-विकास सिद्धांत

विकास का असंतुलित-विकास सिद्धांत।(Unbalanced Growth) असंतुलित विकास की नीति को अपनाने के कारण। और असंतुलित-विकास की प्रक्रिया।

विकास का असंतुलित-विकास सिद्धांत :- अल्पविकसित देशों को विकास के मार्ग पर लाने तथा विकास के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता होती है।- इस निवेश व्यूह रचना के संबंध में विभिन्न अर्थशास्त्रियों में मतभेद पाया जाता है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार अल्पविकसित देशों की अर्थव्यवस्था के कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में पहले निवेश करके असंतुलन उत्पन्न करना चाहिए। इस असंतुलन के फलस्वरूप अन्य क्षेत्रो का भी विकास होगा। इस नीति को असंतुलन विकास की नीति कहा जाता है। इसके विपरीत कुछ अर्थशास्त्रियों का यह मानना है कि अल्पविकसित देशों को अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में एक साथ निवेश करना चाहिए। इस नीति को संतुलित विकास की नीति कहा जात है। अत: किसी देश की आर्थिक विकास की व्यूह रचना से संबंधित दो सिद्धांत है –

1. सन्तुलित विकास सिद्धांत
2 असन्तुलित विकास सिद्धांत

असंतुलित विकास (Unbalanced Growth) : असंतुलित विकास सिद्धांत :-

कुछ अर्थशास्त्रियों जैसे हिरशमैन, सिंगर, रोस्टोव, फ्लेमिंग आदि के अनुसार अल्पविकसित देश असंतुलित विकास की निति अपनाकर अर्थव्यवस्था को विकास के मार्ग पर ला सकते है। असंतुलित विकास का अर्थ है कि अर्थव्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में पहले निवेश किया जाए। जिससे ये क्षेत्रअन्य क्षेत्रों की तुलना में विकसित हो जाएंगे तथा अर्थव्यवस्था में असंतुलन उत्पन्न होगा। इस असंतुलन को दूर करने के लिए अन्य क्षेत्रों में भी निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा तथा अर्थव्यवस्था विकास के मार्ग पर आ जाएगी।अत: असंतुलित विकास का अर्थ है – “जान बूझकर उत्पन्न किए गए असंतुलन की श्रृंखला के माध्यम से विकास”।

रोस्टोव के अनुसार “विश्व के लगभग सभी देशों में असंतुलित विकास की नीति अपनाकर ही विकास के उद्देश्य को प्राप्त किया है”।

असंतुलित विकास (Unbalanced Growth)

असंतुलित विकास की नीति को अपनाने के कारण :-

प्रोफेसर हिरशमैन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “Strategies of Economic Development” , मैं यह स्पष्ट किया कि अल्पविकसित देशों में इतने साधन ही नहीं होते। कि अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का एक साथ विकास किया जा सके। अंत इन देशों के लिए असंतुलित विकास की नीति ही सर्वश्रेष्ठ है। उनके अनुसार असंतुलित विकास की नीति निम्न कारणों से अपनाई जानी चाहिए –

  1. बाहरी बचतें –
    हिरशमैन के अनुसार असंतुलित विकास की नीति अपनाने से पहले जब कुछ उद्योगों में निवेश किया जाता है तो कई प्रकार की बाहरी बचते उत्पन्न होती हैं जिनका लाभ उठाकर अन्य उद्योग भी अपना विकास करते हैं प्रत्येक उद्योग पहले से स्थापित उद्योगों से उत्पन्न बाहरी बचतों का लाभ उठाता है तथा नए उद्योगों के लिए बाहरी बचते उत्पन्न करता है इस प्रकार विकास की प्रक्रिया चलती रहती है।
    Exp. Cotton → Fabric Industry → Readymade

    ii. पूरकताएँ :- असंतुलित विकास के अन्तर्गत किसी एक उद्योग का विकास होने से दूसरे            उद्योग की पुरकताएँ प्राप्त होती है। इन पूरकताओं के फलस्वरूप अर्थव्यवस्था के सभी            उद्योगों का विकास होने लगता है।

  • प्रो० हिरामैन के अनुसार निवेश को दो भागों में बांटा जाता है –
    (1) सामाजिक उपरि पूंजी
    2 ) प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाएं
  1. SOC में निवेश :- इसके अंतर्गत अधोसंरचना तथा आधारभूत सेवाओं को शामिल किया जाता है जिनके बिना प्राथमिक व द्वितीय क्षेत्रों का विकास संभव नहीं होता है। इनके अंतर्गत यातायात, बिजली, स्वास्थ्य व शिक्षा आदि पर किए जाने वाले निवेश को शामिल किए जाता है। इसका दायित्व सरकार पर होता है तथा निजी निवेश को प्रोत्साहित करता है।
  2. DAP में निवेश :- ये वे प्रक्रिया होती है जिनके फलस्वरूप अति उत्पादन की मात्रा में वृद्धि होती है। प्राथमिक व द्वितीय क्षेत्रों में होने वाली क्रियाओं को प्रत्यक्ष उत्पादक क्रिया (DPA) में शामिल किया जाता है।

असंतुलित विकास की प्रक्रिया :-

हिरशमैन के अनुसार विकास की प्रक्रिया को सामाजिक ऊपर पूंजी या प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में से किसी एक में पहले निवेश करके शुरू किया जा सकता है। इसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है:-

i) सामाजिक उपरि पूंजी में निवेश द्वारा असंतुलन:-

हिरशमैन के अनुसार यदि सरकार SOC में निवेश करती है तो ने इससे सिंचाई, बिजली, स्वास्थ्य तथा शिक्षा आदि में सुविधाएँ होगी। जिससे बाहरी बचतें उत्पन्न होगी। इन बाहरी बचतों के फलस्वरूप प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं DPA में निवेश को भी प्रोत्साहन मिलेगा तथा अर्थव्यवस्था विकास के मार्ग पर आ जाएगी।

ii) प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में निवेश द्वारा असंतुलन :-

यदि प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं मे पहले निवेश किया जाता है। इससे निवेशको को सामाजिक उपरि पूँजी (SOC) की कमी. महसूस होगी। जिससे उत्पादन लागतें बढ़ जाएगी । इस कमी को दूर करने के लिए उत्पादक सरकार पर दबाव डालेंगे तथा सरकार को SOC में निवेश करना पड़ेगा । इसे SOC की कमी के माध्यम से विकास कहा जाता है।
 हिरशमैन के अनुसार – सामाजिक ऊपरि पूंजी में कमी के माध्यम से विकास की उचित विधि नहीं है क्योंकि यह दबाब व संघर्ष पर आधारित है। अतः उन्होंने SOC में पहले बल निवेश करने पर दिया। क्योंकि इससे विकास की प्रक्रिया अपने आप शुरू होती है। हिरशमैन द्वारा बताई गई असंतुलन की प्रक्रिया को निम्न चित्र दुवारा दर्शाया जा सकता है:-

असंतुलित विकास

चित्रानुसार : A-A,B-BC-C सम उत्पाद वक्र है जो DPA तथा SOC की उन मात्राओं को दर्शाते हैं जिनमें समान राष्ट्रीय उत्पादन प्राप्त होता है विकास की प्रक्रिया को पहले SOC मैं यहां पहले DPA में निवेश करके प्रारंभ किया जा सकता है –

यदि SOC में पहले निवेश किया जाता है तो अर्थव्यवस्था मैं विकास का प्रारंभ DEGHK होगा। यदि प्रारंभ में SOC में DE निवेश किया जाता है इसके फलस्वरूप सुविधाएं व बाहरी बचतें उत्पन्न होगी। जिससे DPA में DF के बराबर निवेश करने को प्रोत्साहन मिलेगा तथा अर्थव्यवस्था ऊंचे सम उत्पाद वक्र BB के बिंदु पर पहुंच जाएगी। इसके पश्चात एसओसी में GH के बराबर निवेश किया जाता है। तो उत्पन्न हुई बाहरी वस्तुओं के फलस्वरूप DPA में GJ बराबर निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा तथा अर्थव्यवस्था बिंदु K पर पहुंच जाएगी। इस प्रकार यह प्रक्रिया चलती रहेगी।
यदि प्रारंभ में DPA में निवेश किया है तो विकास का कार्य DFGJK होगा। यदि प्रारंभ में DPA में DF के बराबर निवेश किया पर जाता है तो इससे SOC की कमी महसूस होगी। इस कमी को पूरा करने के लिए सरकार पर दवाब डाला जाएगा। इस दवाब के कारण सरकार को SOC में DPA के बराबर निवेश करना पड़ेगा। जिससे अर्थव्यवस्था के कुल उत्पादन में वृद्धि होगी तथा यह विकास के मार्ग पर आ जाएगी।

iv) उद्योगो में सहलग्नता:-
हिरशमैन ने इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि एक उद्योग में निवेश करने से दूसरे उद्योगों में कैसे निवेश होगा तथा यह भी स्पष्ट किया है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न उद्योगों में संबंध पाया जाता है जिसे सहलग्नता या संयोजन कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है –

अग्रगामी सहलग्नता / संयोजन :-

जब एक उद्योग में निर्मित उत्पादन को निर्मित उत्पादन को कच्चे माल की तरह प्रयोग किया जाता है तो इस सहलग्नता संयोजन को अग्रगामी सहलगनता कहा जात जाता है।

Example :- यदि लोहा उद्योग लगाया जाता है तो ऐसे उद्योग का भी विकास होगा जो लोहे को कच्चे माल की तरह प्रयोग करते हैं जैसे रेलवे उद्योग

पश्चगामी सहलग्नता संयोजन :– संबंध

जब किसी एक उद्योग (A) का विकास होता है तो उस उद्योग का भी विकास होगा जो (A) उद्योग का कच्चा माल का उत्पादन करता है तो इन उद्योगों में पाई जाने सहलग्नता को पश्चगामी सहलग्नता कहा जाता है।

Example :- यदि लोहा उद्योग का विकास होता है तो इसके फलस्वरूप कोयले उद्योग का भी विकास होगा जो लोहा उद्योग को कच्चा माल उत्पादन करता है। इसे पश्चगामी सहलग्नता कहा जाता है
हिरशमैन के अनुसार – विभिन्न उद्योगों में निवेश करने से पहले यह पता लगाना चाहिए कि इन उद्योगों में कुल सहलग्नता कितनी है तथा केवल उन्हीं उद्योगों में निवेश करना चाहिए जिनसे कुल सहलग्नता अधिकतम हो।

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